Friday, October 12, 2012

Las Vegas : The Modern Pilgrimage....

एक बरस में एक बार 
है आती दिवाली और होली
एक बरस में एक ही बार 
है vegas जाती अपनी टोली |

vegas ने नहीं कभी
है मेरी किस्मत खोली 
फिर भी भाती है मुझे 
वहां के लोगो की बोली |

निर्भय और सच्चे हैं लोग जहाँ
किये हुए हैं ऊँचे सर
हैं उलझे नहीं बिना बात के
और न ही करते कोई आडम्बर |

निर्वस्त्र होकर भी होता जहाँ काम
पर है मिलता काम का पूरा दाम
और होती नहीं सीता जैसी पवित्र
बिना बात ही बदनाम |

धर्मराज की तरह नहीं लगाते जहाँ
दावं द्रौपदी पर लोग जाने अनजाने
और नहीं ही होता चीर हरण
भरी सभा में भगवान् के सामने |

है ठाकुर जी के ज्ञान की
सिर्फ vegas में रौशनी फैली
बाकी पूरी दुनिया में तो
मैंने तेरी और तुने मेरी ले ली |

लोगो के पापो को धोते धोते
हैं गंगा पहले से ही मैली
कलयुग में vegas जैसे तीर्थ न हो तो
कहाँ खोलूं मैं पापो की यह थैली |

शिखर जी की वंदना की मैंने
ले के श्रद्धा मन में अपरम्पार
हज भी हो के आया मैं
एक नहीं दो दो बार |

इतना सब करके भी
मेरे नहीं खुले ज्ञान के द्वार
vegas जाने से ही
हुआ मेरे तो जीवन का उध्यार |

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