Tuesday, October 16, 2012

मर्द !

धरती कब तक ये बोझ सहे, हिलना ही होगा 
सीता क्यूँ चुप-बदनाम रहे, कुछ कहना ही होगा  
द्रोपदी क्यूँ पांच में बटें, खुद से निश्चय करना ही होगा 
राम-कृष्ण के सामने जो हुआ, कलयुग में दोहराना नहीं होगा 
सदियों से बंद इन कपाटो को अब खुलना ही होगा
मेरे साथ शोलो पे अब तुझे भी चलना होगा
मुझे पाना है, मर्द, तो तुझे बदलना ही होगा ।

आदर्शवादी जीवन का ये खोखला चक्कर
खुद को बनाया देवता तूने हर सदी 
तेरे लिए कुर्बान हुयी सीता-द्रोपदी
पर मैं तो हूँ दुर्गा,काली,लक्ष्मी और सरस्वती
कैसे तू भुला इसको हर घडी
तुझे राम-अर्जुन के आदर्शो को भूलना ही होगा
मुझे पाना है, मर्द, तो तुझे बदलना ही होगा ।

रीति-रिवाजो की जंजीरों में बंधकर 

तेरे चरणों की धूल तक मांग में भरी
हर दम तेरे पीछे मैं चली, 
पर मैं ही तो तेरे लिए यम तक से लड़ी
कैसे तू भुला इसको हर घडी
तुझे अब इन जंजीरों को तोडना ही होगा
मुझे पाना है, मर्द, तो तुझे बदलना ही होगा ।

तेरी कल्पना का विषय बनकर
मैं परियो से सुन्दर, सितारों में बसी
तूने चाँद भी तोड़े, मेरे होठ गुलाबो की पंखुड़ी
पर मैं तो खुद ही अन्तरिक्ष तक उडी
कैसे तू भुला इसको हर घडी
तुझे इन उपमायो से अब निकलना ही होगा
मुझे पाना है, मर्द, तो तुझे बदलना ही होगा ।

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