Monday, October 15, 2012

फिदरत !

मौसम बदलते हैं, रुख हवाओ के बदलते, है बहाव नदी बदल सकती
कमरे में ये "महावीर" की जो आज मूर्ति लगा दी, अब हट नहीं सकती ।

कवि बदलते हैं, हैं बदलते लेखक, ये कलम है बदल सकती
पर मेरे-तेरे बीच ये दीवार जो लगा दी, अब गिर नहीं सकती ।

ग्रह बदलते हैं, बदल जाते नक्षत्र, हैं आकाश-गंगाएं बदल सकती
पर "गीता" के नाम पे ये आग जो जला दी, अब बुझ नहीं सकती ।
 

देश बदलते हैं, बदलते संगी-साथी, है भाषा बदल सकती 
"संस्कृति" का ढोंग करती सोच ये पथरो-सी, अब पिघल नहीं सकती ।

रंग बदलते हैं, हैं जुंबा के ढंग बदलते, हैं तेज नज़र बदल सकती   
पर फिदरत "यूँ ही" ने जो बना ली, अब बदल नहीं सकती ।




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