Friday, October 12, 2012

बैठे रहो न यूँ !

गहराई से डर के, किनारे आज, बैठे रहो न यूँ
चढ़ा है ज्वार, पानी ठंडा है तो क्या 
है नहीं नौका तो गम क्या 
बाजुयो में बल है, तो करो आज 
तुम पार तैर के दरिया ।

भोर के इंतज़ार में, घर में आज, बैठे रहो न यूँ 
है अँधेरी रात, धुंध चारो तरफ तो क्या 
है नहीं मशाल तो गम क्या
मन को मंजिल दिखती है तो
आखें मूंद के ही, करो पार यह रस्ता ।

ऊँचाई से डर के, नीचे आज, बैठे रहो न यूँ
ऊपर जाता नहीं कोई रस्ता तो क्या
है फिसलन, तुम पहले हो तो गम क्या
मन का साहस गर ऊँचा है तो, आज
करो पर्वत पार, कर के तैयार नया रस्ता ।

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