Friday, October 12, 2012

कैसे तुम जी लेते हो !

बिना दाम इनाम, तो करता नहीं
मैं सुई जितना भी काम 
हे सूरज, हे चाँद !
तुम मुफ्त में कैसे ?
धूप चांदनी दे देते हो ।

मेरा स्वार्थ न हो तो,
स्थिर रहता हूँ मैं बिलकुल
हे पवन, हे नदी !
तुम निस्वार्थ भाव से कैसे
मीलो मील बह लेते हो ।

मेरा मतलब न हो तो, हर जगह,
हर घडी देर करता हूँ मैं
हे वृक्ष !
तुम कैसे हर वर्ष समय पर
फल अपने दे देते हो ।

जोशराहित जीवन, जैसे तैसे
मैं जी लेता हूँ
हे सागर ।
तुम कैसे दिन में चार-चार बार
उफान भर लेते हो ।

मैं तो जल भुन के जब तब
सिर्फ क्रोध ही बरसाता हूँ
हे बादल !
तुम कैसे गरज के बरस के
सब कुछ शीतल कर देते हो ।

दूजो की असहाय स्थिति पे हंस-हंस के
होता है मेरा तो युक्तीकरण
हे अभागे कमजोर पिछड़े !
दुसरो की हंसी का पात्र बन के भी
कैसे तुम जी लेते हो ।

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