Friday, November 2, 2012

जाके पाँव न फटे बिवाई !


हिमालय की ऊँचाई समझ में तब आई
जब इन पैरो ने की शुरू उस पे चडाई ।

समंदर की गहराई समझ में न आई 
छलांग समंदर में जब तक न लगायी ।

पापा के दुःख-दर्द समझ में आये 
पापा के जूते जब इन पैरो में आये ।

माँ का प्यार-दुलार समझ में आया 
खाना इन हाथो ने खुद जब पकाया ।

भैया के सहमे चेहरे पे अब तरस है आया 
ये चेहरा हमने जब दस-दस जगह दिखाया ।

दो और दो चार समझ में न आये 
पेंटो की जेबों को छोटा जब तक न पाए ।

दादा-दादी की बात वो अब समझ में आई 
जो कहा था "यह बात समझ अभी नहीं आई" ।

ये कंघी अनुभव की तब हाथ में आई 
हो चुकी थी जब सारे बालो की झडाई ।

ये जीवन भी तभी समझ में आया 
जब खुद को शर-शय्या पर पाया । 

बुजुर्गो की कहावत समझ में अब आई
"जाके पाँव न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई" ।

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